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सो चि॒न्नु भ॒द्रा क्षु॒मती॒ यश॑स्वत्यु॒षा उ॑वास॒ मन॑वे॒ स्व॑र्वती । यदी॑मु॒शन्त॑मुश॒तामनु॒ क्रतु॑म॒ग्निं होता॑रं वि॒दथा॑य॒ जीज॑नन् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

so cin nu bhadrā kṣumatī yaśasvaty uṣā uvāsa manave svarvatī | yad īm uśantam uśatām anu kratum agniṁ hotāraṁ vidathāya jījanan ||

पद पाठ

सो इति॑ । चि॒त् । नु । भ॒द्रा । क्षु॒ऽमती॑ । यश॑स्वती । उ॒षाः । उ॒वा॒स॒ । मन॑वे । स्वः॑ऽवती । यत् । ई॒म् । उ॒शन्त॑म् । उ॒श॒ताम् । अनु॑ । ऋतु॑म् । अ॒ग्निम् । होता॑रम् । वि॒दथा॑य । जीज॑नन् ॥ १०.११.३

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:11» मन्त्र:3 | अष्टक:7» अध्याय:6» वर्ग:9» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सा चित् उ नु) वह भी तुरन्त (भद्रा) भजनीया (क्षुमती) प्रशस्त अन्नादिभोग देनेवाली (यशस्वती) यश कीर्ति प्राप्त करानेवाली (स्वर्वती) सुखवाली-सुख देनेवाली (उषाः) कमनीया प्रतिभा, कमनीया राष्ट्रभूमि या प्रजा (मनवे) आस्तिक मनस्वी विद्वान् के लिये या प्रजापालक राजा के लिये (उवास) प्रादुर्भूत होती है या सम्पन्न होती है (उशताम्-उशन्तम्) कामना करनेवालों के-चाहनेवालों के कामना करनेवाले-चाहनेवाले (क्रतुं-होतारम्-अग्निम्-अनु) जगत्कर्ता सुखदाता ज्ञानप्रकाशक परमात्मा को अनुकूलता से (विदथाय) स्वात्मा में उस ओ३म् का जप अर्थभावन द्वारा भावित करने के लिए (जीजनन्) प्रादुभूर्त करते हैं-साक्षात् करते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - आस्तिक की मानसवृत्ति प्रतिभा, न्यायकारी राजा की राष्ट्रभूमि या प्रजा, परमात्मा की कृपा से उसके लिये शीघ्र अच्छी सेवनीया व दिव्यभोग देनेवाली, यश्स्करी, सुख पहुँचानेवाली हो जाती है। परमात्मा को चाहनेवाले को सुखदाता परमात्मा भी चाहता है। उपासक जन उसके अनुकूल चलने से, उसे स्वात्मा में अनुभव करने से साक्षात् करते हैं ॥३॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सा-चित्-उ नु) सा खल्वपि सद्यः नु क्षिप्रनाम” [निघ०२।९] (भद्रा) भजनीया, भागवती “भद्रं भगेन व्याख्यातं भजनीयम्” [निरु०४।९] (क्षुमती) प्रशस्यान्नवती “क्षु-अन्ननाम” [निघ०२।७] (यशस्वती) कीर्तिमती (स्वर्वती) सुखवती (उषाः-मनवे-उवास) कमनीया प्रतिभा प्रादुभर्वति, राष्ट्रभूमिः कामयमाना प्रजा वा सम्भवति, मनवे-आस्तिकमनस्विने विदुषे “विद्वांसस्ते मनवः” [श०८।६।३।१८] प्रजापालकाय राज्ञे वा “प्रजापतिर्वै मनुः” [श०६।६।१।१९] (यत्-ईम्) यदा हि (उशताम्-उशन्तं क्रतुं होतारम्-अग्निम्-अनु) कामयमानानां कामयमानं कर्त्तारं सुखदातारं ज्ञानप्रकाशकं परत्मात्मानमानुकूल्येन (विदथाय) वेदनाय स्वात्मनि भावनाय “तज्जपस्तदर्थभावनम्” [योग०] “विदथा वेदनेन” [निरु०३।१२] (जीजनन् ) प्रादुर्भावयन्ति ॥३॥